संक्षिप्त गरुड़ पुराण चौदहवाँ अध्याय Garuda Purana Fourteenth Chapter

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गरुड़ पुराण चौदहवाँ अध्याय Garuda Purana Fourteenth Chapter "यमलोक एवं यमसभा का वर्णन, चित्रगुप्त आदि के भवनों का परिचय, धर्मराज नगर के चार द्वार, पुण

गरुड़ पुराण चौदहवाँ अध्याय Garuda Purana Fourteenth Chapter

"यमलोक एवं यमसभा का वर्णन, चित्रगुप्त आदि के भवनों का परिचय, धर्मराज नगर के चार द्वार, पुण्यात्माओं का धर्म सभा में प्रवेश"

गरुड़ जी ने कहा – हे दयानिधे ! यमलोक कितना बड़ा है? कैसा है? किसके द्वारा बनाया हुआ है? वहाँ की सभा कैसी है और उस सभा में धर्मराज किनके साथ बैठते हैं? हे दयानिधे ! जिन धर्मों का आचरण करने के कारण धार्मिक पुरुष जिन धर्म मार्गों से धर्मराज के भवन में जाते हैं, उन धर्मों तथा मार्गों के विषय में भी आप मुझे बतलाइए !

श्री भगवान ने कहा – हे गरुड़ ! धर्मराज का जो नगर नारदादि मुनियों के लिए भी अगम्य है उसके विषय में बतलाता हूँ, सुनो ! उस दिव्य धर्म नगर को महापुण्य से ही प्राप्त किया जा सकता है। दक्षिण दिशा और नैऋत्य कोण के मध्य में वैवस्वत, यम का जो नगर है, वह संपूर्ण नगर वज्र का बना हुआ है, दिव्य है और असुरों तथा देवताओं से अभेद्य है।

वह पुर चौकोर, चार द्वारों वाला, ऊँची चार दीवारी से घिरा हुआ और एक हजार योजन प्रमाण वाला कहा गया है। उस पुर में चित्रगुप्त का सुन्दर मन्दिर है, जो पच्चीस योजन लम्बाई और चौड़ाई में फैला हुआ है। उसकी ऊँचाई दस योजन है और वह लोहे की अत्यन्त दिव्य चारदीवारी से घिरा है। वहाँ आवागमन के लिए सैकड़ों गलियाँ हैं और वह पताकाओं एवं ध्वजों से विभूषित है। वह विमान समूहों से घिरा है और गायन-वादन से विनादित है। चित्र बनाने में निपुण चित्रकारों के द्वारा चित्रित है तथा देवताओं के शिल्पियों ने उसका निर्माण किया है।

वह उद्यानों और उपवनों से रमणीय है, नाना प्रकार के पक्षीगण उसमें कलरव करते हैं तथा वह चारों ओर से गन्धर्वों तथा अप्सराओं से घिरा है। उस सभा में अपने परम अद्भुत आसन पर स्थित चित्रगुप्त मनुष्यों की आयु की यथावत गणना करते हैं। वे मनुष्यों के पाप और पुण्य का लेखा-जोखा करने में त्रुटि नहीं करते। जिसने जो शुभ अथवा अशुभ कर्म किया है, चित्रगुप्त की आज्ञा से उसे उन सबका भोग करना होता है। चित्रगुप्त के घर के पूरब की ओर ज्वर का एक बड़ा विशाल घर है और उनके घर के दक्षिण शूल, लूता और विस्फोट के घर हैं तथा पश्चिम में कालपाश, अजीर्ण तथा अरुचि के घर हैं।

चित्रगुप्त के घर के उत्तर की ओर राजरोग और पाण्डुरोग का घर है, ईशान कोण में शिर:पीड़ा का और अग्निकोण में मूर्च्छा का घर है। नैऋत्यकोण में अतिसार का, वायव्य कोण में शीत और दाह का स्थान है। इस प्रकार और भी अन्यान्य व्याधियों से चित्रगुप्त का भवन घिरा हुआ है। चित्रगुप्त मनुष्यों के शुभाशुभ कर्मों को लिखते हैं। चित्रगुप्त के भवन से बीस योजन आगे नगर के मध्य भाग में धर्मराज का महादिव्य भवन है। वह दिव्य रत्नमय तथा विद्युत की ज्वालामालाओं से युक्त और सूर्य के समान देदीप्यमान है।

वह दो सौ योजन चौड़ा, दो सौ योजन लंबा और पचास योजन ऊँचा है। हजार स्तंभों पर धारण किया गया है, वैदूर्यमणि से मण्डित है, स्वर्ण से अलंकृत है और अनेक प्रकार के हर्म्य (धनिकों के भवन) और प्रासादगृह से परिपूर्ण है। वह भवन शरतकालीन मेघ के समान उज्जवल, निर्मल एवं सुवर्ण के बने हुए कलशों से अत्यन्त मनोहर है, उसमें चित्र बहुरंगी रंग के स्फटिक से बनी हुई सीढ़ियाँ हैं और वह हीरे के फर्श से सुशोभित है।

रोशनदानों में मोतियों के झालर लगे हैं। वह पताकाओं और ध्वजों से विभूषित, घण्टा और नगाड़ों से निनादित तथा स्वर्ण के बने तोरणों से मण्डित है। वह अनेक आश्चर्यों से परिपूर्ण और स्वर्णनिर्मित सैकड़ों किवाड़ों से युक्त है तथा कण्टकरहित नाना वृक्ष, लताओं एवं गुल्मों अर्थात झाड़ियों से सुशोभित है। इसी प्रकार अन्य भूषणों से भी भवन सदा भूषित रहता है। विश्वकर्मा ने अपने आत्मयोग के प्रभाव से उसका निर्माण किया है।

उस धर्मराज के भवन में सौ योजन लंबी-चौड़ी दिव्य सभा है जो सूर्य के समान प्रकाशित, चारों ओर से देदीप्यमान तथा इच्छानुसार स्वरुप धारण करने वाली है। वहाँ न अधिक ठंड है, न अधिक गरमी। वह मन को अत्यन्त हर्षित करने वाली है। उसमें रहने वाले किसी को न कोई शोक होता है, न वृद्धावस्था सताती है, न भूख-प्यास लगती है और न किसी के साथ अप्रिय घटना ही होती है। देवलोक और मनुष्यलोक में जितने काम (काम्य, विषय, अभिलाषाएँ) हैं, वे सभी वहाँ उपलब्ध हैं। वहाँ सभी तरह के रसों से परिपूर्ण भक्ष्य और भोज्य सामग्रियाँ चारों ओर प्रचुर मात्रा में है।

वहाँ सरस, शीतल तथा उष्ण जल भी उपलब्ध है। उसमें पुण्यमय शब्दादि विषय भी उपलब्ध हैं और नित्य मनोवांछित फल प्रदान करने वाले कल्पवृक्ष भी वहाँ है।

हे तार्क्ष्य ! वह सभा बादहरहित, रमणीय और कामनाओं को पूर्ण करने वाली है। विश्वकर्मा ने दीर्घ काल तक तपस्या करके उसका निर्माण किया है। उसमें कठोर तपस्या करने वाले, सुव्रती, सत्यवादी, शान्त, सन्यासी, सिद्ध एवं पवित्र कर्म करके शुद्ध हुए पुरुष जाते हैं।

उन सभी की देह तेजोमय होती है। वे आभूषणों से अलंकृत तथा निर्मल वस्त्रों से युक्त होते हैं तथा अपने किये हुए पुण्य कर्मों के कारण वहाँ विभूषित होकर विराजमान रहते हैं। दस योजन विस्तीर्ण और सभी प्रकार के रत्नों से सुशोभित उस सभा में अनुपम एवं उत्तम आसन पर धर्मराज विद्यमान रहते हैं। वे सत्पुरुषों में श्रेष्ठ हैं और उनके मस्तक पर छत्र सुशोभित है, कानों में कुण्डलों से अलंकृत वे श्रीमान महामुकुट से सुशोभित हैं। वे सभी प्रकार के अलंकारों से समन्वित तथा नीलमेघ के समान कान्ति वाले हैं। हाथ में चँवर धारण की हुई अप्सराएँ उन्हें पंखा झलती रहती हैं। गन्धर्वों के समूह तथा अप्सराओं का संघ गायन, वादन और नृत्यादिद्वारा सभी ओर से उनकी सेवा करते हैं। हाथ में पाश लिये हुए मृत्यु और बलवान काल तथा विचित्र आकृति वाले चित्रगुप्त एवं कृतान्त के द्वारा वे सेवित हैं।

हाथों में पाश और दण्ड धारण करने वाले, उग्र स्वभाव वाले, आज्ञा के अधीन आचरण करने वाले तथा अपने समान बल वाले नाना दूतों से वे धर्मराज घिरे रहते हैं।

हे खग ! अग्निष्वात्त, सोमप, ऊष्मप, स्वधावान, बहिर्षद, मूर्तिमान तथा अमूर्तिमान जो पितर हैं एवं अर्यमा आदि जो पितृगण हैं और जो अन्य मूर्तिमान पितर हैं वे सब मुनियों के साथ धर्मराज की उपासना करते हैं। अत्रि, वसिष्ठ, पुलह, दक्ष, क्रतु, अंगिरा, जमदग्निनन्दन परशुराम, भृगु, पुलस्त्य, अगस्त्य, नारद – ये तथा अन्य बहुत से पितृराज (धर्मराज) के सभासद हैं, जिनके नामों और कर्मों की गणना नहीं की जा सकती। ये धर्मशास्त्रों की व्याख्या करके यथावत निर्णय देते हैं, ब्रह्मा की आज्ञा के अनुसार वे सब धर्मराज की सेवा करते हैं। उस सभा में सूर्य वंश के तथा चंद्र वंश के अन्य बहुत से धर्मात्मा राजा धर्मराज की सेवा करते हैं।

मनु, दिलीप, मान्धाता, सगर, भगीरथ, अम्बरीष, अनरण्य, मुचुकुन्द, निमि, पृथु, ययाति, नहुष, पूरु, दुष्यन्त, शिवि, नल, भरत, शन्तनु, पाण्डु तथा सहस्त्रार्जुन – ये यशस्वी पुण्यात्मा राजर्षि और बहुत से प्रख्यात राजा बहुत से अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करने के फलस्वरुप धर्मराज के सभासद हुए हैं। धर्मराज की सभा में धर्म की ही प्रवृति होती है। न वहाँ पक्षपात है, न झूठ बोला जाता है और न किसी का किसी के प्रति मात्सर्यभाव रहता है। सभी सभासद शास्त्रविद और सभी धर्मपरायण हैं। वे सदा उस सभा में वैवस्वत यम की उपासना करते हैं।

हे तार्क्ष्य ! महात्मा धर्मराज की वह सभा इस प्रकार की है। जो पापात्मा पुरुष दक्षिण द्वार से वहाँ जाते हैं, वे उस सभा को नहीं देख पाते। धर्मराज के पुर में जाने के लिए चार मार्ग हैं। पापियों के गमन के लिए जो मार्ग है उसके विषय में मैंने तुमसे पहले ही कह दिया।

पूर्व आदि तीन मार्गों से जो धर्मराज के मन्दिर में जाते हैं, वे सुकृती अर्थात पुण्यात्मा होते हैं और अपने पुण्यों के बल से वहाँ जाते हैं, उनके विषय में सुनो। उन मार्गों में जो पहला पूर्व मार्ग है वह सभी प्रकार की सामग्रियों से समन्वित है और पारिजात वृक्ष की छाया से आच्छादित तथा रत्नमण्डित है। वह मार्ग विमानों के समूहों से संकीर्ण और हंसों की पंक्ति से सुशोभित है, विद्रूम के उद्यानों से व्याप्त है और अमृतमय जल से युक्त है। उस मार्ग से पुण्यात्मा ब्रह्मर्षि और अमलान्तरात्मा राजर्षि, अप्सरागण, गन्धर्व, विद्याधर, वासुकि आदि महान नाग जाते हैं।

अन्य बहुत से देवताओं की आराधना करने वाले शिव भक्ति निष्ठ, ग्रीष्म ऋतु में प्याऊ का दान करने वाले माघ में आग सेंकने के लिए लकड़ी देने वाले, वर्षा-ऋतु में विरक्त संतों को दान-मानादि प्रदान करके उन्हें विश्राम कराने वाले, दु:खी मनुष्य को अमृतमय वचनों से आश्वस्त करने वाले और आश्रय देने वाले, सत्य और धर्म में रहने वाले, क्रोध और लोभ से रहित, पिता-माता में भक्ति रखने वाले, गुरु की शुश्रुषा में लगे रहने वाले, भूमि दान देने वाले, गृहदान देने वाले, गोदान देने वाले, विद्या प्रदान करने वाले, पुराण के वक्ता, श्रोता और पुराणों का परायण करने वाले – ये सभी तथा अन्य पुण्यात्मा भी पूर्वद्वार से धर्मराज के नगर में प्रवेश करते हैं।

वे सब सुशील और शुद्ध बुद्धि वाले धर्मराज की सभा में जाते हैं। धर्मराज के नगर में जाने के लिए दूसरा उत्तर-मार्ग है, जो सैकड़ों विशाल रथों से तथा शिवि का आदि नर यानों से परिपूर्ण है। वह हरिचन्दन के वृक्षों से सुशोभित है। उस मार्ग में हंस और सारस से व्याप्त, चक्रवाक से सुशोभित तथा अमृततुल्य जल से परिपूर्ण एक मनोरम सरोवर है। इस मार्ग से वैदिक, अभ्यागतों की पूजा करने वाले, दुर्गा और सूर्य के भक्त, पर्वों पर तीर्थ स्नान करने वाले, धर्म संग्राम में अथवा अनशन करके मृत्यु प्राप्त करने वाले, वाराणसी में, गोशाला में अथवा तीर्थ-जल में विधिवत प्राण त्याग करने वाले हैं।

ब्राह्मणों अथवा अपने स्वामी के कार्य से तथा तीर्थक्षेत्र में मरने वाले और देव-प्रतिमा आदि के विध्वंस होने से बचाने के प्रयास में प्राण त्याग करने वाले हैं, योगाभ्यास से प्राण त्याग करने वाले हैं, सत्पात्रों की पूजा करने वाले हैं तथा नित्य महादान देने वाले हैं, वे व्यक्ति उत्तर द्वार से धर्मसभा में जाते हैं।

तीसरा पश्चिम का मार्ग है, जो रत्नजटित भवनों से सुशोभित है, वह अमृत सर से सदा परिपूर्ण रहने वाली बावलियों से विराजित है। वह मार्ग ऎरावत-कुल में उत्पन्न मदोन्मत हाथियों से तथा उच्चै:श्रवा से उत्पन्न अश्वरत्नों से भरा है। इस मार्ग से आत्मतत्ववेत्ता, सत-शास्त्रों के परिचिन्तक, भगवान विष्णु के अनन्य भक्त, गायत्री मन्त्र का जप करने वाले, दूसरों की हिंसा, दूसरों के द्रव्य एवं दूसरों की निन्दा से पराड़्मुख रहने वाले, अपनी पत्नी में सन्तुष्ट रहने वाले, संत, अग्निहोत्री, वेदपाठी ब्राह्मण गमन करते हैं।

ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले, वानप्रस्थ आश्रम के नियमों का पालन करने वाले, तपस्वी, सन्यास धर्म का पालन करने वाले तथा श्रीचरण-सन्यासी एवं मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्ण को समान समझने वाले, ज्ञान एवं वैराग्य से सम्पन्न, सभी प्राणियों के हित-साधन में निरत, शिव और विष्णु का व्रत करने वाले, सभी कर्मों को ब्रह्म को साम्र्पित करने वाले, देव-ऋण, पितृ-ऋण एवं ऋषि-ऋण – इन तीनों ऋणों से विमुक्त, सदा पंचयज्ञ में निरत रहने वाले, पितरों को श्राद्ध देने वाले, समय से संध्योपासन करने वाले, नीच की संगति से अलग रहने वाले, सत्पुरुषों की संगति में निष्ठा रखने वाले – ये सभी जीव अप्सराओं के समूहों से युक्त श्रेष्ठ विमान में बैठकर अमृतपान करते हुए धर्मराज के भवन में जाते हैं और उस भवन के पश्चिम द्वार से प्रविष्ट होकर धर्मसभा में पहुँचते हैं। उन्हें आया हुआ देखकर धर्मराज बार-बार स्वागत-सम्भाषण करते हैं, उन्हें उठकर अभ्युत्थान देते हैं और उनके सम्मुख जाते हैं।

उस समय धर्मराज भगवान विष्णु के समान चतुर्भुज रूप और शंख-चक्र-गदा तथा खड्ग धारण करके पुण्य करने वाले जीवों के साथ स्नेहपूर्वक मित्रवत आचरण करते हैं। उन्हें बैठने के लिए सिंहासन देते हैं, नमस्कार करते हैं और पाद्य, अर्घ्य आदि प्रदान करके चन्दनादिक पूजा-सामग्रियों से उनकी पूजा करते हैं।

यम अर्थात धर्मराज कहते हैं – हे सभासदों ! इस ज्ञानी को परम आदरपूर्वक नमस्कार कीजिए, यह हमारे मण्डल का भेदन करके ब्रह्मलोक में जाएगा। हे बुद्धिमानों में श्रेष्ठ और नरक की यातना से भयभीत रहने वाले पुण्यात्माओं ! आप लोगों ने अपने पुण्य-कर्मानुष्ठान से सुख प्रदान करने वाला देवत्व प्राप्त कर लिया है। दुर्लभ मनुष्य योनि प्राप्त करके जो नित्य वस्तु – धर्म का साधन नहीं करता, वह घोर नरक में गिरता है, उससे बढ़कर अचेतन – अज्ञानी और कौन है? अस्थिर शरीर से और अस्थिर धन आदि से कोई एक बुद्धिमान मनुष्य ही स्थिर धर्म का संचयन करता है, इसलिए सभी प्रकार के प्रयत्नों को करके धर्म का संचय करना चाहिए। आप लोग सभी भोगों से परिपूर्ण पुण्यात्माओं के स्थान स्वर्ग में जाएँ।

ऎसा धर्मराज का वचन सुनकर उन्हें और उनकी सभा को प्रणाम करके वे देवताओं के द्वारा पूजित और मुनीश्वरों द्वारा स्तुत होकर विमान समूहों से परम पद को जाते हैं और कुछ परम आदर के साथ धर्मराज की सभा में ही रह जाते हैं और वहाँ एक कल्पपर्यन्त रहकर मनुष्यों के लिये दुर्लभ भोगों का उपभोग करके पुण्यात्मा पुरुष शेष पुण्यों के अनुसार पुण्य-दर्शन वाले मनुष्य योनि में जन्म लेता है। इस लोक में वह महान धन संपन्न, सर्वज्ञ तथा सभी शास्त्रों में पारंगत होता है और पुन: आत्मचिन्तन के द्वारा परम गति को प्राप्त करता है।

हे गरुड़ ! तुमने यमलोक के विषय में पूछा था, वह सब मैंने बता दिया, इसको भक्तिपूर्वक सुनने वाला व्यक्ति भी धर्मराज की सभा में जाता है।

।। "इस प्रकार गरुड़ पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में “धर्मराजनिरुपण” नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ "।।

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